DDT का पूरा नाम ( Dichlorodiphenyltrichloroethane)

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DDT का व्खाया

DDT एक कृत्रिम कार्बनिक यौगिक (Synthetic Organic Compound) है, जिसे विशेष रूप से कीटों को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया था। यह 20वीं शताब्दी का सबसे प्रभावशाली कीटनाशक माना गया, जिसने मलेरिया और टायफस जैसी घातक बीमारियों से लाखों लोगों की जान बचाई। परंतु इसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह जैव-अवक्रमण (Biodegradation) के प्रति अत्यंत प्रतिरोधी है और पर्यावरण में लंबे समय तक स्थायी बना रहता है।

खोज और इतिहास

DDT को सबसे पहले 1874 में रसायनज्ञ Othmar Zeidler ने प्रयोगशाला में तैयार किया।

परंतु इसकी वास्तविक उपयोगिता को 1939 में Paul Hermann Müller ने खोजा, जिन्हें इसके लिए 1948 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सैनिकों को जुओं और मच्छरों से बचाने के लिए इसका बड़े पैमाने पर उपयोग किया गया।

रासायनिक संरचना और गुण

रासायनिक सूत्र (Chemical Formula): C₁₄H₉Cl₅

यह सफेद, क्रिस्टलीय और गंधहीन ठोस पदार्थ होता है।

पानी में लगभग अघुलनशील, परंतु वसा और तेल में घुलनशील होता है।

यह अत्यधिक स्थायी (Non-Biodegradable) है, यानी दशकों तक मिट्टी और जल में बना रह सकता है।

DDT की संरचना

उपयोग

  1. मलेरिया नियंत्रण – मच्छरों को मारने के लिए।
  2. कृषि में कीटनाशक – कपास, धान, गेहूँ और अन्य फसलों पर कीट नियंत्रण के लिए।
  3. महामारी नियंत्रण – टायफस, प्लेग आदि को रोकने के लिए।

हानिकारक प्रभाव

  1. बायोमैग्निफिकेशन (Biomagnification):

DDT भोजन श्रृंखला में ऊपर जाते-जाते अत्यधिक मात्रा में एकत्रित हो जाता है।

पौधों में अल्प मात्रा → कीटों में अधिक → मछली में और अधिक → पक्षी/मनुष्य में सबसे अधिक।

  1. वन्यजीवों पर प्रभाव:

पक्षियों के अंडों का खोल पतला हो जाता है, जिससे उनकी संख्या घटती है।

मछलियों और जलीय जीवों की प्रजनन क्षमता कम हो जाती है।

  1. मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव:

लिवर और नर्वस सिस्टम को प्रभावित करता है।

हार्मोनल असंतुलन पैदा कर सकता है।

लंबे समय तक संपर्क से कैंसर तक का खतरा बढ़ सकता है।

वर्तमान स्थिति

DDT का उपयोग कई देशों में पूरी तरह प्रतिबंधित है।

भारत में भी इसका प्रयोग अब केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों में (जैसे मलेरिया नियंत्रण) किया जाता है, जबकि कृषि में यह पूरी तरह बंद है।

निष्कर्ष

DDT एक ऐसा यौगिक है जिसने मानव जीवन को बीमारियों से बचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया, लेकिन इसका दूसरा पहलू अत्यंत हानिकारक सिद्ध हुआ। इसकी लंबी आयु, पर्यावरण में स्थायित्व और बायोमैग्निफिकेशन की क्षमता के कारण यह प्रकृति और स्वास्थ्य दोनों के लिए खतरनाक है। यही कारण है कि आज वैज्ञानिक और सरकारें इसके विकल्प तलाशने और पर्यावरण को सुरक्षित रखने की दिशा में कार्य कर रही हैं।

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